रविंद्रनाथ टैगोर और उनकी राष्ट्र/राज्य की संकल्पना
डॉ.
सुरेश खैरनार
पुराणों में भस्मासुर नाम के राक्षस की एक कहानी मशहूर है. वह
जिस किसी के भी सर पर हाथ रखता था,वह
भस्म हो जाता था. आजकल संघ परिवार ने उसी भस्मासुर का रूप ले
लिया है.उस ने हमारे राष्ट्रपुरुषों के सर पर हाथ रखना शुरू
किया है.स्वामी विवेकानंद से योगी अरविंद,
रामकृष्ण परमहंस,
सरदार वल्लभ भाई पटेल,
महात्मा गांधी तक उन के लपेट में आ गए और अब रविंद्रनाथ टैगोर
की नौबत आ गयी. वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत ने मध्य प्रदेश
के सागर संघ शिविर में अपने भस्मासुर के रूप का परिचय देते हुए
कहा कि रविंद्रनाथ टैगोर ने अपने स्वदेशी समाज नामक
किताब में हिंदू राष्ट्र की संकल्पना और आह्वान किया है (मराठी
दैनिक लोकसत्ता,
नागपुर,
दि.
20.01.2015
अंक). पहली बात यह कि स्वदेशी समाज नाम की कोई किताब
नहीं,बल्कि वहकुल तीस पन्नों का एक निबंध है जो टैगोर ने
बंगभंग (1905)
के
तुरंत बाद वहां की पानी की समस्या से संबंधित एक टिप्पणी के
रूप में लिखा था.उन्होंने उस में हिंदू राष्ट्र का कहीं भी
समर्थन नहीं किया,बल्कि उन्होंने उस में यह कहा था कि आर्यों
ने जब भारत पर आक्रमण किया, तब किस तरह यहां की स्थानीय
जातियों ने उन्हें अपने भीतर समा लिया. बाद में फिर मुसलमान
आएँ, उन्हें भी इसी तरह अपना लिया गया. इस भूमि
की इसी खासियत को उन्होंने इस निबंध में उजागर किया. महत्त्व
की बात यह है कि टैगोर ने हमेशा नेशन स्टेट (राष्ट्र-राज्य)
संकल्पना की आलोचना की है. उन्होंने उसे ‘यह शुद्ध यूरोप की
देन है’ ऐसा कहा है. अपने
1917
के 'नेशनलिज्म इन इंडिया’
नामक
निबंध में उन्होंने साफ़ तौर पर लिखा है कि राष्ट्रवाद का
राजनीतिक एवं आर्थिक संगठनात्मक आधार सिर्फ उत्पादन में वृद्धि
तथा मानवीय श्रम की बचत कर अधिक संपन्नता प्राप्त करने का
यांत्रिक प्रयास इतना ही है. राष्ट्रवाद की धारणा मूलतः
विज्ञापन तथा अन्य माध्यमोंका लाभ उठाकर राष्ट्र की समृद्धि
एवं राजनीतिक शक्ति में अभिवृद्धि करने में प्रयुक्त हुई हैं.
शक्ति की वृद्धि की इस संकल्पना ने राष्ट्रों मे पारस्परिक
द्वेष,
घृणा
तथा भय का वातावरण उत्पन्न कर मानव जीवन को अस्थिर एवं
असुरक्षित बना दिया है. यह सीधे सीधे जीवन के साथ खिलवाड है,
क्योंकि राष्ट्रवाद की इस शक्ति का प्रयोग बाह्य संबंधों के
साथ-साथ राष्ट्र की आंतरिक स्थिति को नियंत्रित करने में भी
होता है. ऐसी परिस्थिति में समाज पर नियंत्रण बढ़ना स्वाभाविक
है. फलस्वरूप, समाज तथा व्यक्ति के निजी जीवन पर राष्ट्र छा
जाता है और एक भयावह नियंत्रणकारी स्वरूप प्राप्त कर लेता है.
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसी आधार पर राष्ट्रवाद की आलोचना की है.
उन्होंने राष्ट्र के विचार को जनता के स्वार्थ का एैसा संगठित
रूप माना है, जिसमें मानवीयता तथा आत्मत्व लेशमात्र भी नहीं रह
पाता है. दुर्बल एवं असंगठित पड़ोसी राज्यों पर
अधिकार प्राप्त करने का प्रयास यह राष्ट्रवाद का ही स्वाभाविक
प्रतिफल है. इस से उपजा साम्राज्यवाद अंततः मानवता का संहारक
बनता है. राष्ट्र की शक्ति में वृद्धि पर कोई नियंत्रण स्वंभव
नहीं, इसके विस्तार की कोई सीमा नहीं. उसकी इस अनियांत्रित
शक्ति में ही मानवता के विनाश के बीज उपस्थित हैं. राष्ट्रों
का पारस्परिक संघर्ष जब विश्वव्यापी युद्ध का रूप धारण कर लेता
है, तब उसकी संहारकता के सामने सब कुछ नष्ट हो जाता है. यह
निर्माण का मार्ग नहीं, बल्कि विनाश का मार्ग है. राष्ट्रवाद
की धारणा किस तरह शक्ति के आधार पर विभिन्न मानवी समुदायों में
वैमनस्य तथा स्वार्थ उत्पन्न करती है, इस बात को उजागर करता
रवीन्द्रनाथ टैगोर का यह मौलिक चिंतन समूचे विश्व के लिए एक
अमूल्य योगदान है, और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक
मोहन भागवत उन्हें हिंदू राष्ट्रवाद के समर्थक बताकर उन्हें
भस्म करने का प्रयास कर रहे हैं!
भारतके लिए राष्ट्रवाद विकल्प नहीं बन सकता:
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है कि भारत में राष्ट्रवाद नहीं के
बराबर है. वास्तव में भारत में यूरोप जैसा राष्ट्रवाद पनप ही
नहीं सकता. क्योंकि सामाजिक कार्यों में रूढ़िवादिता का पालन
करने वाले यदि राष्ट्रवाद की बात करें तो राष्ट्रवाद कहां से
प्रसारित होगा?
उस
ज़माने के कुछ राष्ट्रवादी विचारक स्विटजरलैंड ( जो बहुभाषी एवं
बहुजातीय होते हुए भी राष्ट्र के रूप में स्थापित है) को भारत
के लिए एक अनुकरणीय प्रतिरूप मानते थे. लेकिन रवीन्द्रनाथ
टैगोर का यह विचार था कि स्विटजरलैंड तथा भारत में काफी फ़र्क
एवं भिन्नताएं हैं. वहां व्यक्तियों में जातीय भेदभाव नहीं है
और वे आपसी मेलजोल रखते हैं तथा आंतरविवाह करते हैं, क्योंकि
वे अपने को एक ही रक्तके मानते हैं. लेकिन भारत
में जन्माधिकार समान नहीं है. जातीय विभिन्नता तथा पारस्परिक
भेद भाव के कारण भारत में उस प्रकार की राजनीतिक एकता की
स्थापना करना कठिन दिखाई देता है, जो किसी भी राष्ट्र के लिए
बहुत आवश्यक है. टैगोर का मानना है की समाज द्वारा बहिष्कृत
होने के भय से भारतीय डरपोक एवं कायर हो गए हैं. जहाँ पर
खान-पान तक की स्वतंत्रता न हो, वहां राजनीतिक
स्वतंत्रता का अर्थ कुछ व्यक्तियों का सब पर नियंत्रण ऐसा ही
होकर रहेगा.इस से निरंकुश राज्य ही जन्म लेगा और राजनैतिक जीवन
में विरोध अथवा मतभेद रखने वाले का जीवन दूभर हो जाएगा.
क्या ऐसी नाम मात्र स्वतंत्रता के लिए हम अपनी नैतिक
स्वतंत्रता को तिलांजलि दे दें?
संकीर्ण राष्ट्रवाद के विरोध में वे आगे लिखते हैं कि
राष्ट्रवाद जनित संकीर्णता यह मानव की प्राकृतिक स्वच्छंदता
एवं आध्यात्मिक विकास के मार्ग में बाधा है. वे राष्ट्रवाद को
युद्धोन्मादवर्धक एवं समाजविरोधी मानते हैं, क्योंकि
राष्ट्रवाद के नाम पर राज्य शक्ति का अनियंत्रित प्रयोग अनेक
अपराधों को जन्म देता है. व्यक्ति को राष्ट्र के प्रति समर्पित
कर देना उन्हें कदापि स्वीकार नहीं था. राष्ट्र के नाम पर मानव
संहार तथा मानवीय संगठनों का संचालन उन के लिए असहनीय था. उन
के विचार में राष्ट्रवाद का सब से बड़ा खतरा यह है कि मानव की
सहिष्णुता तथा उसमें स्थित नैतिकताजन्य परमार्थ की भावना
राष्ट्र की स्वार्थपरायण नीति के चलते समाप्त हो जाएंगे. ऐसे
अप्राकृतिक एवं अमानवीय विचार को राजनैतिक जीवन का आधार बनाने
से सर्वनाश ही होगा. इसी लिए टैगोर ने राष्ट्र की धारणा को
भारत के लिए ही नहीं, अपितु विश्वव्यापी स्तर पर अमान्य करने
का आग्रह रखा था. वे भारत के राष्ट्रवादी आंदोलन के राजनैतिक
स्वतंत्रता संबंधी पक्ष के भी आलोचक थे, क्योंकि
उनका यह विश्वास था कि भारत इससे शक्ति प्राप्त नहीं कर सकता.
वे मानते थे कि भारत को राष्ट्र की संकरी मान्यता को छोड़
अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाना चाहिए. आर्थिक रूप से भारत
भले ही पिछड़ा हो, मानवीय मूल्यों में पिछड़ापन
उसमें नहीं होना चाहिए. निर्धन भारत भी विश्व का मार्ग दर्शन
कर मानवीय एकता में आदर्श को प्राप्त कर सकता है. भारत का
अतीत-इतिहास यह सिद्ध करता है कि भौतिक संपन्नता की चिंता न कर
भारत ने अध्यात्मिक चेतना का सफलतापूर्वक प्रचार किया है.
समाज बनाम राज्य:
टैगोर राष्ट्रवाद की आलोचना इसलिए करते हैं, क्योंकि वे समाज
को राज्य से अधिक प्रमुखता देते हैं और मानवीय विकास में उसे
अधिक महत्वपूर्णमानते हैं. वे फासीवादियों को राष्ट्रवाद के
पागलपन का प्रतीक मानते थे.फासीवाद के प्रवर्तन से पहले
राष्ट्रवाद आर्थिक विस्तारवाद तथा उपनिवेशवाद से जुड़ा हुआ
था. प्रथम विश्वयुद्ध के बाद राज्य की बढ़ती हुई शक्तिके
कारण राष्ट्रवाद को राज्य द्वारा काफी सराहा गया. बेनितो
मुसोलिनी (इतालवी तानाशाह) ने कहा कि राष्ट्र,
राज्य का निर्माण नहीं करता अपितु राज्य द्वारा राष्ट्र का
निर्माण होता है.राष्ट्रवाद की अवधारणा, जोकि उन्नीसवीं सदी
के उत्तरार्द्ध तथा बीसवीं सदी की शुरूआत के राजनैतिक दौर
में सहयोगी अवधारणा बन गई थी, अपने मूल रूप से सांस्कृतिक थी.
इस विचार के चलने से पहले पश्चिमी देश अधिक विश्वव्यापी
दृष्टिकोणरखते थे, और इस कारण वहां पर राष्ट्रवाद पहले
सुप्तावस्था में रहा. किंतु क्षेत्रीयता के
प्रचार ने धीर-धीरे स्थिति परिवर्तित कर दी. मशीनीकरण ने एक
नया वातावरण तैयार किया. परंपरागत मूल्यों को समाप्त किया
जाने लगा तथा मानव-समुदाय की एकता के सूत्र बिखरने लगे.भारत
में हिन्दू राष्ट्रवाद तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उदय को
इसी सन्दर्भ में देखना-समझना होगा.
दूसरे गोलमेज परिषद के पश्चात (1931)हिन्दू महासभा के वरिष्ठ
नेता धर्मवीर डॉ.मुंजे सीधे इटली गए, जहां
उन्होंने काफी जगहों की यात्राएं कीं तथा नाज़ी संगठनों के
स्कूल कॉलेज तथा प्रशिक्षण के संस्थाओंका नजदीकी से अध्ययन
किया. डॉ. मुंजे की डायरी के 13 पन्ने (जो नेहरू मेमोरियल में
उपलब्ध हैं) बताते हैं कि उन्हों ने 15 मार्च से 24 मार्च
1931 में वहां के मिलिट्री कॉलेज तथा फैसिस्ट अकादमी ऑफ
फिजिकल एजुकेशन का निरीक्षण किया.महाराष्ट्र के नागपुरमें
1925में शुरूकिएगएआर.आर.एस. के प्रशिक्षण के लिए ही उन्हों ने
इसका अध्ययन कियाथा और इटली से निकलने से पहले उन्होंने
बेनितो मुसोलिनो से मुलाकात कर इटली में चल रहे इन कार्यक्रमों
की भूरि-भूरि प्रशंसा भी की थी. डॉ. हेडगेवार से मिलकर
उन्हों ने आर एस एस को जो आकार दिया, उसी का प्रतिफल
आज का आर.आर.एस. है, जिसके द्वारा नागपुर तथा नाशिक में
स्थित भोंसले मिलिट्री स्कूल संचालित किये जाते हैं.उसके बाद
जीवनके हर क्षेत्र में विभिन्न संगठनों की रचनाएं कर संघ आज
अपनी ताकत का परिचय दे रहा है.
रविंद्रनाथ टैगोर ने राष्ट्रवाद के इसी अंतिम पक्षकी आलोचना
की, जिसमें नृशंसता, रुग्णता तथा पृथकता दिखाई देती है. वे
राष्ट्रवाद को शक्तिका संगठित समष्टीगत रूप मानते हुए राज्य
के शोषणकारी पक्षको दर्शाते हैं. उनके अनुसार पश्चिममें
वाणिज्य तथा राजनीति की राष्ट्रीय मशीन द्वारा मानवता की साफ-सुथरी
दबाई हुई गाठें तैयार कीं. आर.एस.एस. राष्ट्रवाद के नाम पर
इसी संकल्पना की गाहे-वगाहे वकालत करते रहती है. उसी पॉलिसी के
अंतर्गत उनके नेतागण समय-समय
पर कभी सरदार वल्ल्भभाई पटेल तो कभी रविंद्रनाथ टैगोर जैसे
राष्ट्रीय नेताओं के वचनोंको अपने प्रचार-प्रसार हेतु
तोड़-मरोड़ कर पेश करते रहते हैं. रविंद्रनाथ टैगोर ने भारत
को पश्चिम के राष्ट्रवाद से दूर रहने की सलाह दी थी. उनके
अनुसार आंतरराष्ट्रीय सहयोग के लिए यह आवश्यक था कि भारत इस
पश्चिमी राष्ट्रवादी विष से अलग रहे.उनका कहना था कि पश्चिमता
एक ऐसा बांध है, जो उन की सभ्यता
को राष्ट्र रहित देशों की ओर प्रवाहित होने से रोकता है. वे
भारत को राष्ट्र रहित
देश मानते थे.क्योंकि
भारत विभिन्न
प्रजातियों का
देश था और भारत को
इन प्रजातियों
में समन्वय
बनाए रखना था. यूरोप के
देशों के सामने
प्रजातियों के समन्वय की
कोई समस्या ही नहीं
थी. अत: वे राष्ट्रवाद
रूपी मदिरा का सेवन कर
अपनी आध्यात्मिक एवं
मनोवैज्ञानिक एकता को खतरा
उत्पन्न कर रहे थे.
उन के अनुसार भविष्य में पश्चिमी
राष्ट्र या तो विदेशियों के लिए अपने
द्वार ही
बंद कर
दे या उन्हें फिर अपने
दास बना लें, यही उनकी प्रजातीय
समस्याका समाधान हो सकता है. साफ़ है भारत के लिये यह विकल्प
नहीं हो सकता.
राष्ट्रवाद की आलोचना के तीन प्रमुख आधार जो रविंद्रनाथ
टैगोर ने प्रस्तुत किए, वे थे-
1.
राष्ट्रीयराज्य की आक्रमक नीति,
2.
प्रतियोगी वाणिज्य-वाद की विचारधारा, तथा
3.
प्रजातिवाद.
टैगोर फासीवादियों की प्रखर आलोचना करते थे.फासीवाद तथा
साम्यवाद की तुलना करते हुए उन्होंने फासीवाद को असह्य
निरंकुशवाद की संज्ञा दी. वे फासीवादियों की स्थिति को
सर्वाधिक हेय मानते थे, क्योंकि उस व्यवस्था में हर चीज
नियंत्रित होती है. आज की तारीख में भारतमें आर.एस.एस. यह काम
पहले से ही करता आ रहा है. मई 2014 में केंद्र में भाजपा की
सरकार आने के बाद संघ परिवार का उत्साह और तेज हुआ है.
इसीलिए लवजिहाद,
रामजादे-हरामजादे से लेकर घर वापिसी तक अलग-अलग राग आलापे जा
रहे हैं. मदर टेरेसा जैसे गरीबों की संत महिला से लेकर,चर्चों
पर के हमले, दंगे फसाद तथा अपने हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार
हेतु विभिन्न राष्ट्रनायकों के उद्धरणों को तोड-मरोड़ कर पेश
करना उन की रण नीति बन चुकी है. उसी क्रम में रविंद्रनाथ
टैगोर को वर्तमान संघ का प्रमुख बार-बार
हिंदू राष्ट्र का समर्थक बनाने का प्रयत्न कर उनका अपमान कर
रहे हैं.
संघ के बारे में विनोबाजी के विचार:
आर.एस.एस. ने इसके पूर्व विवेकानंद को भी इसी तरह तोड़-मरोड़ कर
पेश करने की ना-कामयाब कोशिश की है. स्वामीजी विश्व स्तर के
विचारक थे. किंतु संघ ने उन्हें संकरे हिंदुत्व के दायरे में
बांधकर उन्हें हिंदू मोंक
(Monk)
या साधू के रूप में ढालकर उनके कद को छोटा कर दिया है. झूठ का
सहारा लेना, चीजों को तोड़-मरोड़ कर पेश करना यह संघ की रण नीति
का का हिस्सा है, यह मैं नहीं, खुद आचार्य विनोबा भावे कहते
हैं.गांधी जी की हत्या के बाद
11
मार्च से
15
मार्च
1948
में सेवाग्राम में एक चिंतन बैठक हुई थी, जिस बैठक में विनोबा
जी ने अपनी बात रखते हुए साफ शब्दों में कहा कि, “ मैं उसी
प्रांत का हूं जिसमें आर.एस.एस. का जन्म हुआ है. मैं जाति
छोड़कर बैठा हूं पर भूल नहीं सकता कि मैं उसी जाति का हूं जिस
जाति के नाथूराम गोडसे ने गांधीजी की हत्या की और वह उसी संगठन
का आदमी था, जो महाराष्ट्र के एक ब्राह्मण
हेड़गेवार ने स्थापित किया है. उनके देहांत के बाद जो आज सरसंघ
चालक बने हैं, वे श्री. गोलवलकर भी महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण
हैं. इसके ज्यादातर प्रचारक भले वे पंजाब,
मद्रास,
बंगाल या उत्तर भारत कहीं भी काम करते हो,लगभग सभी अक्सर
महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण ही हैं. यह संगठन इतने बड़े पैमाने पर
बड़ी कुशलता के साथ फैलाया गया है. इस की जड़ें बहुत ही गहरी है.
यह संगठन ठीक फैसिस्ट ढंग का संगठन है. इसमें प्रधान रुप से
महाराष्ट्र की बुद्धि का उपयोग हुआ है. इसके सभी पदाधिकारी तथा
संचालक अक्सर महाराष्ट्रीयन और ब्राह्मण रहे हैं. इस संगठन के
लोग दूसरों को विश्वास में नहीं लेते. गांधीजी का नियम सत्य का
था. मालूम होता है इनका नियम असत्य का होना चाहिए. यह असत्य
उनकी टेकनिक, उनके तंत्र और उनकी फिलॉसाफी का हिस्सा है.
“एक
धार्मिक अखबार में मैंने उनके संगठन के सरसंघचालक श्री गोलवलकर
का एक ऐसा लेख पढ़ा जिसमें उन्होंने लिखा कि हिंदू धर्म का
उत्तम आदर्श अर्जुन है. उसे अपने गुरूजनों तथा आप्तजनों के
प्रति स्नेह, आदर था. किंतु कर्तव्य कर्म के नाते उसने
उन्हें नम्रतापूर्वक प्रणाम कर उनकी हत्याएं कीं. इस प्रकार
की हत्या जो कर सकता है, वह स्थितप्रज्ञ होता है. वे लोग गीता
की मुझसे कम उपासना नहीं करते और वे गीता उतनी ही श्रद्धा से
रोज पढ़ते होंगे जितना मैं पढ़ता हूं.
“मनुष्य यदि पूज्य गुरू-जनों तथा अपने आप्तजनों की हत्याएं कर
सके तो वह स्थितप्रज्ञ होता है, यह उनकी गीता का तात्पर्य है.
बेचारी गीता! उसका हर प्रकार से उपयोग होता है. मतलब यही कि यह
सिर्फ दंगा-फसाद करने वाले उपद्रवकारियों की जमात नहीं है. यह
फिलासाफरों की भी जमात है. उनका अपना तत्वज्ञान है, उनकी अपनी
टेकनिक है.”
गीता
से लेकर गुरूदेव रविंद्रनाथ टैगोर के स्वदेशी समाज का अपने ढंग
से अर्थ निकाल कर उसे प्रचारित-प्रसारित करना यह उसी टेकनिक का
हिस्सा है, जिसे संघ ने
1925
से आस्ते-आस्ते विकसित किया है.रविंद्रनाथ टैगोर को
1913
में नोबल पुरस्कार मिलने के कारण उन्हें पूरे विश्व भ्रमण करने
का मौका प्राप्त हुआ था. उसी यात्रा के दौरान
1917
में जापान की यात्रा में भी उन्होंने राष्ट्रवाद की तीखी
आलोचना की थी. उस वक्त जापान राष्ट्रवाद के बुखार में तड़प रहा
था. इसीलिए टैगोर को जापान से बगैर भाषण दिए वापस जाना पड़ा था.
ऐसे टैगोर जी को मोहन भागवत हिंदू राष्ट्र के समर्थक बता रहे
हैं! विनोबा जी ने बिल्कुल ही सही कहा है कि यह फिलासफरों की
जमात है, जिनका अपना खास टेकनिक है. गीता से लेकर,
विवेकानंद से लेकर, गांधी और नेहरू, पटेल तक सब को अपने ढंग से
तोड़-मरोड़कर पेश करने में वे माहिर हैं. रविंद्रनाथ टैगोर उस
शृंखला में एक नयी कड़ी मात्र है.
संदर्भ ग्रंथ
1.
कल तक बापू
थे,
आज
रहनुमायी कौन करेगा,
सं.
गोपाल गांधी,
परमनेंट
ब्लैक
2.
Tagore, Selected Essays, Rupa
Publications, New Delhi
3.
स्वदेशी समाज,
रविंद्रनाथ टैगोर (मराठी अनुवाद),
साहित्य
अकादमी
4.
रविंद्र
रचनावली,
विश्वभारती प्रकाशन,
शांति
निकेतन
5. गांधी, नेहरू और
टैगोर, प्रकाश नारायण नाटानी, पॉइंटर पब्लिशर्स, जयपुर