Hindi Transcript of P Sainath’s Interview with Communalism Combat-Hillele TV

 

 

 

 

 

PART – 1

तीस्ता सेतलवाड :   नमस्कार,  कम्युनॅलिज़म कॉम्बैट की एक खास मुलाकात में आज हम मुलाकात करेंगे वरिष्ठ पत्रकार पी. साईनाथ से। पी. साईनाथ जी ३१ जुलाई, 2014 तक द हिन्दू अख़बार के एडिटर - रूरल अफेयर्स थे। उनकी किताब एवरीबॉडी लव्स अ गुड ड्राउट को एक अहम लेखन माना जाता हैं। आज हम उनसे बात करेंगे मीडिया के कॉरपोरेटीकरण के बारे में और और कई अन्य सवाल।  आज की पत्रकारिता में कॉर्पोरेटाईजेशन का क्या असर है?

पी.  साईनाथ :     बहुत, बहुत असर हैं... इसलिए कि देखिये पहले जब हम देखते थे, हिंदी मीडिया और अंग्रेजी मीडिया में बहुत ज़्यादा अंतर था...ज़मीन-आसमान का फ़र्क था! लेकिन आज पूरा इंडियन लैंग्वेज मीडिया अंग्रेजी मीडिया का क्लोन बन रहा है... वह बन रहा हैं, अभी भी पूरा नहीं हुआ हैं। ये सेविंग ग्रेस हैं कि पूरा नहीं हुआ, लेकिन हो रहा हैं। जिस दिन से टाइम्स ऑफ़ इंडिया जो कि एक बहुत बढ़िया समाचार पत्र था, उसने नवभारत टाइम्स को ट्रांसलेशन शीट बना दिया। २००५ में हिंदी पट्टी का सबसे बड़ा न्यूजपेपर या नम्बर दो का न्यूजपेपर मैंने पढ़ा...एक दो तिहाई एक पेज का आयटम रॅपर एमीनम के ऊपर। मैंने सोचा यार हिंदी पट्टी में एमिनम का नाम किसने सुना है,  लेकिन एक सिस्टेमेटिक अप्रोच हैं इस तरह की वैल्यू सिस्टम लाइफस्टाइल प्रमोट करने के लिए...एक एडवरटाइजिंग ऑडियंस बनाने के लिए, तो जब एक मैगज़ीन उदाहरण के लिए इंडिया टुडे जैसी, अंग्रेजी में आती हैं, हिंदी में आती हैं और तमिल में...अभी पता नहीं कि तमिल एडिशन हैं या नहीं। लेकिन चार पांच भाषा में आ चुकी हैं और उसमे कोई फर्क नहीं है। इतना सेंट्रलाइस्ट हैं कि इन कई सारी मैगज़ीन्स का एक ही रिपोर्टर है, सिर्फ इंडिया टुडे के बारे में बात नहीं कर रहा हूँ...बहुत सारे, जो सेंट्रलाइस्ट मैगजीन्स कंट्रोल हैं। अगर आपका रिपोर्टर तमिलनाडु में है, तमिल में रिपोर्ट फाइल करता हैं, वहां चेन्नई डेस्क पर वो अंग्रेजी में ट्रांसलेट करवा कर भेजता हैं, दिल्ली सेंट्रल डेस्क को...वहा वो पढ़ के अंग्रेजी में एडिट करके फिर भेजता हैं री-ट्रांसलेशन के लिए तमिल में। एक मैगज़ीन...मैं उसका नाम नहीं लेता हूं,   इसलिए कि उनका पत्रकार फंस जायेगा, उसने कहा, “हमको पता हैं कि देखो यह लोग जो दिल्ली में बैठे हैं वो बहुत कॉलेज लेवल के लड़के हैं, और वो जो लैंग्वेज यूज़ करते हैं, हम तमिल में कैसे ट्रांसलेट कर सकते हैं  मैंने पूछा, “क्या भाषा हैं उनकी?”  उसने कहा, “यार मैं ये तमिल में कैसे ट्रांसलेट करूं? 'कूल चिक मैन' क्लासिकल लैंग्वेज ऑफ़ तमिल में इसको कैसे ट्रांसलेट करूं...'कूल चिक मैन'?” वो बेचारा रो रहा था...

तीस्ता सेतलवाड :   मुझे अभी भी याद हैं की हमारे महाराष्ट्र में, महाराष्ट्र टाइम्स हालांकि शुरू से ब्राह्मणवादी था, मगर एक इंटेलएक्चुअल क्लास में उसकी बहुत बड़ी अहमियत थी। लेकिन जब उसका स्टॉपलाइन पूरा संडे टाइम्स की तरह बना दिया, और पूरे वैसे ही मॉडल्स, वैसे ही पिन-अप्स, वैसे ही फोटोग्राफ्स, तो फिर महाराष्ट्रीय तहज़ीब के साथ उनका कोई लेना देना ही नहीं रह गया...

पी.  साईनाथ :      नहीं, ये बिल्कुल सामान्य बात हैं, क्योंकि जब आप पत्रकारिता को सिर्फ रेवेन्यू मॉडल की तरह देखते हैं फिर ये तार्किक ही हैं। अगर आप पत्रकारिता को एक सामाजिक संवाद मानते हैं, तो फिर आपको दूसरी तरह की पत्रकारिता करनी होगी।

तीस्ता सेतलवाड :   तो क्या आपके मुताबिक आज पत्रकारिता में कुछ प्रतिरोध पैदा करने के लिए, या कुछ अहमियत लाने के लिए कुछ रेग्युलेशन्स या आचार संहिता की जरुरत हैं?                                                                                                        

पी.  साईनाथ :                     बहुत...

तीस्ता सेतलवाड :   किस तरह की ज़रुरत हैं ?

पी.  साईनाथ :                     देखिये सबसे पहले मोनोपोली के खिलाफ...ऐसा नहीं होना चाहिए कि एक रिलायंस कंपनी, या एक मर्डोक, या एक टाइम्स ऑफ़ इंडिया ९० फीसदी मीडिया के स्वामी हो जाएं। वह स्थिति बहुत ख़तरनाक़ हैं...अलोकतांत्रिक!

तीस्ता सेतलवाड :   बाकि उत्पादों में भी ये इजाज़त नहीं हैं...मतलब क़ानूनी हिसाब से।

पी.  साईनाथ :                     नहीं, ये सही बात हैं।

तीस्ता सेतलवाड :   सिर्फ मीडिया में हैं...

पी.  साईनाथ :                     ये सिर्फ मीडिया में हो रहा हैं, और बहुत तेज़ी से हो रहा हैं, बहुत तेज़ी से...ये सिर्फ एक बात हैं। तो एक तो एंटी मोनोपोली क़ानून होना चाहिए, दूसरा ऐसा लेजिस्लेशन सिर्फ नेगेटिव नहीं होना चाहिए। पॉजिटिव लेजिस्लेशन होना चाहिए की कैसे हम भारतीय मीडिया में डाइवर्सिटी बढ़ा सकते हैं। पॉजिटिव अप्रोच टू लेजिस्लेशन होना चाहिए उसमें।

तीस्ता सेतलवाड :   मतलब भाषा के लेवल पर विविधता की संस्कृति, हर तरह की डाइवर्सिटी?

पी.  साईनाथ :                     देखिये अभी भारत में ७८० भाषाएं हैं, अगर पीपुल्स लिंगविस्टिक सर्वे के अनुसार जायेंगे तो उसमे सिर्फ ४ परसेंट की स्कूलिंग फैसिलिटीज हैं सिर्फ सातवीं क्लास तक। सातवीं कक्षा तक ४ फीसदी भाषाओं का स्कूलिंग फैसिलिटीज हैं तो आप शेडूल ऑफ़ कॉन्स्टिट्यूशन का जानबूझ के उल्लंघन कर रहे हैं। जिस देश में २२ भाषाओं को के प्रचार-प्रसार की शपथ ली गई हो, उस शपथ को हर दिन हम तोड़ रहे हैं। भारतीय भाषाओं की जो विविधता हैं, वो लोकतांत्रिकीकरण में हमारा सहायक हैं। उसका हम प्रयोग कर सकते हैं विविधता, लोकतंत्र के लिए ही है।

तीस्ता सेतलवाड : ग्रामीण भारत में…………….

पी.  साईनाथ :                     और अभी हिंदी थोप कर, उसका तो बिल्कुल विरोध करना चाहिए।

तीस्ता सेतलवाड :   आपने जैसी ७८० भाषाओ की प्रकार का संदर्भ दिया उसमे तो ग्रामीण भारत का मसला आता हैं कि भारत और ग्रामीण भारत और पत्रकारिता। इसमें जो एक १९८०-८५ तक कुछ रिश्ता था...हालाँकि तब भी हलका सा था और जितना गहरा होना चाहिए था उतना नहीं था! मगर फिर भी ग्रामीण मुद्दों पर कहीं न कहीं अखबारों में रिपोर्ट टास्क होती थी, आज ग्रामीण मुद्दों से इतनी दूरी क्यों?

पी.  साईनाथ :                     रेवेन्यू नहीं हैं उसमें, बहुत सारे चैनल्स और न्यूजपेपर्स ने उनके डिस्ट्रिक्ट ब्यूरो बंद कर दिए। जहाँ कुछ चैनल्स थे, जैसे एन.डी.टी.वी. था कुछ साल पहले... उड़ीसा में हिंदी और इंग्लिश ब्यूरो था। मल्टी लिंगुअल ब्यूरो था। जब उसमें कुछ समस्या हुई, तब जो हिंदी में था उन सबको वहां से हटा दिया। तो ये रेशनलाइज़ेशन, कॉस्ट रेशनलाइज़ेशन...इस सब में पूरी विविधता बिगड़ जाती है। वर्तमान में ग्रामीण भारत में इतना ऐतेहासिक प्रक्रम चल रहा हैं और मीडिया उसकी उपेक्षा कर रहा हैं...क्योंकि कोई दिलचस्पी ही नहीं हैं उसकी कवरेज में!

तीस्ता सेतलवाड :   किस तरह का ऐतेहासिक प्रक्रम?

पी.  साईनाथ :                     देखिये सबसे बड़ा विस्थापन हो रहा है, हमारे इतिहास में! अगर आप २०११ की जनगणना देखेंगे तो, शताब्दी में पहली बार नगरीय भारत की अतिरिक्त जनसंख्या, ग्रामीण भारत की अतिरिक्त जनसंख्या से ज्यादा हैं दस लाख से।

तीस्ता सेतलवाड :   अच्छा सौ साल में पहली बार?

पी.  साईनाथ :                     यह १९२१ से, १९२१ से पहली बार, हाँ,

तीस्ता सेतलवाड :   ९० साल

पी.  साईनाथ :                     आज़ादी के बाद ये पहली बार। इन दस सालों में बंटवारे से ज्यादा विस्थापन हो चुका है, २००१ से २०११ तक। इतना बढ़ गया, आप देखिये ये आप देखिये कि कृषि के हालात इतने बिगड़ गए, वहां रोज़गार का ढांचा ध्वस्त हो गया।

तीस्ता सेतलवाड :   आप कह रहे थे की हर दिन हम २००० किसानो को खो रहे हैं?

पी.  साईनाथ :                     हाँ…

तीस्ता सेतलवाड :   इसका मतलब….

पी.  साईनाथ :                     इसलिए कि देखिये २००१ से २०११ तक खेतिहर श्रमिक मजदूरों की संख्या, जिसे नंबर ऑफ़ मैन वर्कर कल्टीवेटर कहते हैं; 10 साल में 76-77 लाख कम हो गई। यहां पर जो १८० दिन से ज्यादा, यानी कि ६ महीने से ज्यादा, कृषि का काम करते हैं हम उनको पक्का किसान मानते हैं। यानी कि जो दस दिन का काम करते हैं उसको हम किसान या मैन वर्कर कल्टीवेटर नहीं मानते हैं, ये जनगणना की परिभाषा है और उनकी संख्या एक दशक में ७६ या ७७ लाख कम हो गई।

तीस्ता सेतलवाड :   ओह ये तो ख़तरनाक़ है! तो ये जो कम होने का जो आपने आकड़ा बताया इसका मतलब आप क्या निकालेंगे?

पी.  साईनाथ :                     इसका मतलब हैं की बहुत सारे किसान, किसान से अब खेत मजदूर बन गए, उनकी संख्या बढ़ रही है। मेरे गृह राज्य आंध्र प्रदेश में दस साल में १३ लाख किसान कम हो गए लेकिन खेत मजदूर ३४ लाख बढ़ गए। इस पर कोई लिख रहा नहीं हैं, देख रहा नहीं हैं कि उसको क्या हो रहा है…

तीस्ता सेतलवाड :   आपका जो नया प्रोजेक्ट हैं वो सब ये कहानी दिखाता हैं?

पी.  साईनाथ :                     निश्चित रूप से सारी कहानी दिखाता है...

तीस्ता सेतलवाड :   उस प्रोजेक्ट के बारे में कुछ बताएं...

पी.  साईनाथ :                     इसको हम कहते हैं पीपल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया, मतलब आम लोग अपना रोज़मर्रा का जीवन कैसे चलाते हैं? हम उसके ऊपर काम कर रहे हैं, इसमें ऑडियो हैं, वीडियो हैं, लेख हैं और छायाचित्र भी हैं। इस में स्कूली छात्र और अन्य छात्र भी भाग ले सकते हैं और इस आर्काइव में भारत का हर नागरिक, ग़ौर नागरिक भी प्रतिभागिता कर सकता है। अगर आप आम लोगों के बारे में लिख रहे हैं और कहानी की तस्वीरें खींच रहे हैं तो हम उसे हिस्सा बनाते हैं।

तीस्ता सेतलवाड :   ये कब से सामने आएगा?

पी.  साईनाथ :                     मेरे ख़याल में अक्टूबर नवंबर तक लाइव हो जाएगा...

 

PART – 2 

तीस्ता सेतलवाड :   पत्रकारिता का जो हाल आपने पेश किया काफी निराशाजनक है क्या? तो फिर जो युवक पत्रकार आपके प्रशंसक हैं,  उनमें आप कैसे उत्साह पैदा करते हैं... आप उनको क्या संदेश देते हैं? 

पी.  साईनाथ :                     देखिये मैं ये श्रेय नहीं लेता हूं क्योंकि ऐतेहासिक रूप से हमारी पत्रकारिता ऐसी है कि सब आदर्शवादी ही इस पेशे में गए। अंबेडकर हों या मौलाना आज़ाद या फिर महात्मा गांधी...सरोजिनी नायडू या विजयलक्ष्मी पंडित सब पत्रकारिता में गए। जो हमारी आज़ादी के सिपाही या स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, वो सब पत्रकार के ही दो अस्तित्व थे। एक तो राजनैतिक और दूसरा पत्रकारीय और उन्होंने उसको संयुक्त किया। ये हमारा इतिहास हैं। ये पेशेवर आदर्शवाद को आकर्षित करता है। क्यूं? हम सोचते हैं की देखो आज़ादी में कैसा हुआ...तो एक सम्मान तो है...

तीस्ता सेतलवाड :   तो आज भी इस प्रोफेशन में आइडलिस्टिक लोग आते हैं और आते रहेंगे?

पी.  साईनाथ :                     आते हैं और पांच साल दस साल के अंदर उनके आदर्शवाद को ख़त्म करके, हर एक दफ्तर में उनको सैनिक बना देते हैं, लेकिन उसमे भी एक उत्तरजीविता दर (सर्वाइवल रेट) है। एक बहुत प्रभावशाली दर है। हमारे पीपल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया में सीनियर टेलीविज़न जर्नलिस्ट हमको लेख और रिपोर्ट दे रहे हैं। ये वो कहानियां हैं जो उनके चैनल पर कभी प्रसारित होंगी।  वे इस पेशे में क्यों आए, वो ऐसी स्टोरीज़ की रिपोर्टिंग करने के लिए आए, इसलिए वो हमको ये दे रहे हैं।

तीस्ता सेतलवाड :   और उनको जगह कहीं नहीं मिल रही वो जो आप उनको दे रहे...  कॉर्पोरेटाईजेशन ऑफ़ मीडिया का मतलब क्या है?  

पी.  साईनाथ :                     इसका मतलब हैं की जहां एक अख़बार का स्वामित्व एक व्यक्ति का, एक मालिक या एक परिवार का था... वो उसका पूरा संगठन, कंटेंट और फॉर्मेट भी बदल रहा है।  अभी बड़ी बड़ी कंपनियां और कॉर्पोरेट मीडिया के स्वामी बन रहे हैं, खरीद रहे हैं। कितने लोगों को मालूम हैं कि जो हम इनाडु टीवी (ईटीवी) देखते हैं, उसके २४ चैनल हैं।  इनाडु टीवी की सबसे ज्यादा रीजनल प्रेजेंस है। चाहे महाराष्ट्र में हो या कही और, वो रीजनल टीवी में वो नंबर वन हैं। उनके २४ चैनल में १८ या १६ चैनल प्रॉपर्टी ऑफ़ रिलायंस लिमिटेड या मुकेश अम्बानी के हैं...नहीं तो पता नहीं किसके हैं... तो ऐसे ट्रेंड बन रहा हैं की इंडिविजुअल ओनरशिप, ट्रस्ट ओनरशिप और फैमिली ओनरशिप वो सब पीछे हट रहा हैं और मालिक हैं कॉर्पोरेशन्स। बड़े बड़े कम्पनी कॉर्पोरेट मीडिया को खरीद रहे हैं, और स्वामित्व हासिल कर रहे हैं। जब ऐसा एक ओनरशिप आता है, मीडिया का पूरा पूरा कल्चर बदल जाता हैं...

तीस्ता सेतलवाड :   कंटेंट भी।

पी.  साईनाथ :                     कंटेंट भी बदल ही जाता है। अब ये नहीं देखते हैं कि ये पत्रकारिता क्या चीज़ हैं, लेखन क्या चीज़ हैं, मुद्दों की प्राथामिकता क्या हैं? राजस्व या रेवेन्यू प्राथमिकता बन जाता हैं और विज्ञापनदाता प्राथमिकता बन जाते है, विज्ञापन प्राथमिकता बन जाते हैं। साथ ही कॉर्पोरेट मालिकान के राजनैतिक हित प्राथमिकता बन जाते हैं। आप देख लीजिए, कोलगेट घोटाले में कितने मीडिया हाउस भी शामिल हैं! उसमें जो मालिक थे, उनमे कोल्ड ब्लास्ट में मिस्टर राकेश सिंगला, बड़ा मीडिया मालिक भी है।  पूरा वर्टीकल और हॉरिजेंटल इंटीग्रेशन हो रहा हैं इसमें...

तीस्ता सेतलवाड :   इसको रेग्युलेट करने के लिए तीन-चार कौन से कानून बनने चाहिए?

पी.  साईनाथ :                     पहला - एंटी मोनोपोली, एक शहर में पूरे मीडिया को आप कंट्रोल नहीं कर सकते। एक शहर में या एक रीजनल मार्केट में आपके मीडिया पर स्वामित्व की सीमा तय होनी चाहिए, कि आप कितने प्रसार माध्यमों पर नियंत्रण कर सकते हैं। दूसरा ये होना चाहिए की सकरात्मक और प्रेरित रूप से देश और सरकार को कैसी विविधता को प्रसारित-प्रचारित करना है, इसके लिए भी कानून होना चाहिए की इतनी वॉइसेस से कम नहीं होनी चाहिए, एक शहर में, एक नगर में, कहीं भी। तो प्रमोशन ऑफ़ डाइवर्सिटी एक कर्तव्य बनना चाहिए क़ानून में। और तीसरा देखिये संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में, जो सबसे पहले भाग में कहता है कि सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक असमानता को समाप्त करने, के लिए...तो उसके तहत भी मीडिया आती है, मेरे ख़याल में...मेरी समझ से तो मीडिया उसके तहत आती है...तो ये असमानता बढ़ रही है और मीडिया का प्रमुख लक्षण है। हम २०१४ में एक लक्षण खासतौर पर रेखांकित कर सकते हैं। मीडिया और जन मीडिया और जनता के बीच की बढ़ती दूरी और संवादहीनता... अभी मास मीडिया है लेकिन मासेस नहीं है... कॉर्पोरेटाईजेशन से ये प्रवृत्ति बढ़ जाती है। यानी कम्प्लीट एक्सक्लूशन ऑफ़ मासेस (जनता के मुद्दों को मीडिया से बाहर कर देना), वो मासेस सिर्फ डम्ब पार्टिसिपेशन करता हैं. पेसिव पार्टिसिपेशन...अप्रत्यक्ष हिस्सेदारी...

तीस्ता सेतलवाड :   तो २०१४ के इलेक्शन में भी हमने ये पाया?

पी.  साईनाथ :                     ओह अत्यधिक, आप जो भी चैनल लगाएं कहीं भी मध्य प्रदेश में, गांव में नरेंद्र मोदी स्पीच दे रहे हो, भाषण दे रहे हो तो, दस में से नौ चैनल्स पर लाइव चल रहा था। तो आप जो भी चैनल में स्विच करो उस समय वही दिख रहा है तो ये पुशिंग ऑफ़ अ पोलिटिकल फ़ोर्स, कोएलिस्टिक अराउंड अ पोलिटिकल फ़ोर्स वो कॉर्पोरेटाईजेशन में बहुत जल्दी हो जाता हैं और मोनोपोली पॉवर मीडिया में जो आती हैं वो इंडस्ट्री में बहुत लागू होती हैं। जिस इंडस्ट्रियलिस्ट के पास न्यूजपेपर हैं, उसकी शक्ति और प्रभाव बहुत बढ़ जाते हैं, वो राजा है...अम्बानी साहब ने ये सबक सीखा गोएनका साहब से।

तीस्ता सेतलवाड :   पिछले साल...इस साल के मुंबई प्रेस क्लब्स के अवार्ड्स में अदानी प्रायोजक थे, बहुत बहुत शुक्रिया पी. साईनाथ जी...

पी.  साईनाथ :                     धन्यवाद...

तीस्ता सेतलवाड :   देश और समाज के और कई मुद्दो को समझेंगे एक और नए मेहमान के साथ, अगली बार...देखते रहिये कम्युनलिज़म कॉम्बैट।

 

Ends